ठाकुर रामसिंहजी नक्शबंदी सूफ़ी परम्परा के एक महान हस्ताक्षर है, जिन्होंने अपने अस्तित्व को पूर्ण रूप से अपने गुरु-भगवान महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज (फतेहगढ़) में लय कर अपने आप को पूरी तरह गुरुमय बना लिया था l महात्मा श्री रामचन्द्रजी महाराज प्रथम पूर्ण अधिकार प्राप्त हिन्दू सूफ़ी संत थे, जिन्हें हजरत मौलाना शाह फ़ज्ल अहमद खान साहब ने बाकायदा सभी संत-महपुरुषों की सहमति और इज़ाज़त के साथ अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था l

सूफ़ी संतों का मार्ग प्रेम का मार्ग है, उनकी साधना का सार है परमात्मा या अपने गुरु के प्रति पूर्ण समपर्ण और प्रेम l नक्शबंदी सूफ़ी संत मौन साधना के पक्षधर रहे जिसका उद्देश्य है हृदय चक्र को जागृत कर अनाहत नाद द्वारा निरंतर परमात्मा का जिक्र l महात्मा रामचन्द्रजी ने आज के युग की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इस साधना पद्धति को मात्र गुरु के प्रति पूर्ण प्रेम व समर्पण पर आधारित कर इसे और भी सहज और सरल बना दिया l महात्मा डॉ. चन्द्र गुप्ता ने एक और कदम आगे बढ़कर गुरु और परमात्मा में कोई भेद ना माना अर्थात सतगुरु का सारभूत ही ईश्वर का सारभूत है, तत्वत: गुरु और भगवान एक ही हैं l परमात्मा ही गुरु के हक़ीकी रूप में स्वयं अवतरित होता है l इस तरह यह सिलसिला आज वेदांत के अद्वैततावादी सिद्धांत को समाहित कर एक सरल और अत्यन्त प्रभावशाली साधना पद्धति में ढल गया है और विश्व के कोने-कोने में फ़ैल रहा है l

यह पुस्तक ‘रामचन्द्र के राम-संत थानेदार ठाकुर रामसिंहजी’ उनकी जीवनगाथा है l उन्नीसवीं सदी के अंत में जन्म लेकर बीसवीं सदी के सत्तर वर्षों तक जयपुर और राजस्थान के अनेक भूभागों को अपनी उपस्थिति से धन्य करने वाले ठाकुर रामसिंहजी ने अपने जीवन-निर्वाह के लिए पुलिस की वर्दी को तो धारण किया लेकिन मन से वे एक कर्त्तव्यनिष्ठ लेकिन कोमल और परमार्थ-पथगामी, अमानी मनुष्य बने रहे l

ठाकुर रामसिंहजी अत्यन्त मितभाषी थे । उपदेश देना, व्याख्यान करना उनके स्वभाव में नहीं था, लेकिन साधारण बातचीत में ही वे अध्यात्म सम्बन्धी गूढ़ बाते इतनी सरलता से कह देते थे जो सुनने वाले के हृदय में सहजता से उतर जाती । ठाकुर रामसिंहजी को उर्दू, हिन्दी, मारवाड़ी व फारसी भाषाओं में बहुत सी कहावतें, मुहावरे, दोहे व किस्से याद थे जो वे अवसर के अनुसार अपनी बातचीत में लोगों को विषय को सरलता से समझाने के लिये प्रयोग करते थे । उनकी निगाह में सच्चरित्रता व सद्व्यवहार की कीमत उपनिषदों को पढ़ने से कहीं अधिक थी । अध्यात्म का अथाह सागर होते हुए भी ठाकुर रामसिंहजी अपनी रूहानी हस्ती को छिपाए रहते, किसी पर जाहिर न करते थे l कुछ गिने-चुने लोग जिन्हें उन्हें निकट से जानने और उनके सम्मुख उपस्थित होने का अवसर मिला, वे इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ महापुरुष के दर्शन करने का अनुपम सौभाग्य मिला l

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